रिश्ते निभाने का दस्तूर

वो जो एक-दूसरे का चेहरा देखे बगैर जी नहीं पाते थे, आज एक ही बिस्तर पर उनकी पीठ का आमना-सामना हो रहा है..कुछ हुआ नहीं है ख़ास..बस परहेज है नज़रें मिलाने में और ये डर कि कहीं सामने वाला देख न ले कि अब इन आँखों में उसके लिए प्यार नहीं बचा..और साथ सोने का एक ही मकसद है कि किसी तरह ये बोझिल रिश्ता काँधे से गिर न जाए..

अफ़सोस गिर जाने का भी न होगा..परेशानी ये है कि उसके बाद होने वाला जो दुखों का रिवाज़ है जिसे सदियों से आँख बंद कर हर शख्स माने आ रहा है वो दोहराना होगा..आंसू बहाने होंगे..दुःख भरे गाने सुनने होंगे..तन्हाई से डर लगेगा..घर काटने को दौड़ेगा..ज़िन्दगी से नफरत करनी पड़ेगी..किस्मत को गालियाँ देनी होंगी..और कुछ असफल कोशिशें करनी होगी ज़िन्दगी तमाम करने की..और जब तंग आ जाएँगे हर दस्तूर को निभा कर तो आदत हो जाएगी ऐसे जीने की..

डर बस उस आदत को अपनाने से लगता है..और फिर इतने दस्तूर निभाने से बेहतर तो यही है कि साथ रहने और एक-दूसरे को सहने का दस्तूर ही निभा लिया जाए..इसी बहाने दुनिया बातें भी न बना सकेगी..और बंद कमरों का सच वैसे भी एक ही होता है कि उसमें जो निर्जीव बिस्तर है उस पर वही हुआ है जो भरे समाज करना उचित नहीं..और ये भी तो वही कर रहे हैं न.

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