रात

गुमसुम बैठ कर,
किसी अँधेरे गलियारे में,
चाँद-सितारों को देखना,
और उसमें ढूँढना अपना अस्तित्व..

सोचना वो सब जो बीत चुका है,
जाना वक़्त के पहिये पर चल कर,
उन भूली-बिसरी पगडंडियों पर,
और खुद को आज भी वहीँ बिखरा हुआ पाना..

मायूस हो जाना अपनी नाकामी पर,
फिर मन की चीखें सुनना,
खामोश रातों की गुमनामी में,
और सवाल करना कि क्या चाहती है ज़िन्दगी?

खुद में निरुत्तर हो कर,
कुछ आंसुओं को तकलीफ देना,
किस्मत को कोसने का खेल खेलना,
और फिर खो जाना अपने भीतर कहीं..

उम्मीद का दामन थामना,
फिर से नाउम्मीद हो कर,
कोशिश करने की एक और कोशिश करना,
और नाकामयाबी की एक और कहानी लिख देना..

बस इसी उधेड़बुन में कट जाती हैं मेरी रातें,
जिनमें ये जहाँ सो जाता है सपने सजाने को..

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