तो क्या बात होती..

थोड़ा ये दिल बहल जाता तो क्या बात होती..
थोड़ा मैं बदल जाता तो क्या बात होती..

बिखरा पड़ा होता हूँ फुर्सत के लम्हों में,
थोड़ा जो संभल जाता तो क्या बात होती..

दबा-सहमा सा जो एक अरमान है कहीं भीतर,
थोड़ा जो मचल जाता तो क्या बात होती..

बंदिशों में उलझा, खुद में सिमटा हुआ ये दिल,
थोड़ा जो फिसल जाता तो क्या बात होती..

मन में दफ़न जो बुझती हसरतों का इक चिराग है,
थोड़ा जो जल जाता तो क्या बात होती..

ठोकरों की चोट से जो दिल पत्थर बना बैठा है,
थोड़ा जो पिघल जाता तो क्या बात होती..

थोड़ा ये दिल बहल जाता तो क्या बात होती..
थोड़ा मैं बदल जाता तो क्या बात होती..

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