घंटा इक्वलिटी

आधा सच मिला था आधे झूठ से,
और फिर बना था इंसान..
बनाने वाला ने भी सोचा था,
कि सब बराबर होगा..
मगर वही फिर किस्मत की मार,
थोड़ी हालातों की पेचीदगी,
थोड़ी उसकी बेबसी,
थोड़ा समाज का डर..

और वो भी कर बैठा वही,
इंसानों सी गलतियाँ..
और फिर खुद को सही कहने को,
बना दिए सैकड़ों बहाने..

कहीं लिंग से भेद हुआ,
तो कहीं संपत्ति से..
कहीं रंगत बनी वजह,
तो कहीं फर्क हुआ विपत्ति से..

और जो उससे ना हो सका,
वो कसर हमने पूरी की..
धर्म-जाति के नाम पर,
इंसानों में और दूरी की..

वो खुदा, जिस को पूजते हैं आँखें मूँद कर,
हाथ फैलाते हैं जिसके आगे,
कहते हैं सब की सुनता है,
सब के लिए एक सा है..
उसने तुम्हें क्यों वैसा नहीं बनाया,
जैसा तुम अब बनने की कोशिश करते हो..
और उसने तुम्हें ऐसा क्यों बनाया,
कि ज़माना तुम पर हँसता रहे..

और हम इंसान,
कभी बड़ी-बड़ी बातों से..
कभी खोखले विचारों से..
तर्क और दलीलें देते हैं..
कि सब एक बराबर हैं..
और अगर नहीं हैं,
तो हम कोशिश कर के एक कर देंगे..
अरे जाओ! बातें बनाओ बस..
जिसके भरोसे जीते हो,
जब वो खुदा ही फर्क कर गया..
तो तुम उसके टुकड़ों पर पलने वाले,
क्या ख़ाक बराबर कर पाओगे...


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