समुन्दर में आग

और फिर कल रात रेत पर बैठ कर,
मैंने अपने हाथों से,
समुन्दर को जलाने की कोशिश की..
बिल्कुल वैसा ही मंज़र था,
जैसे तुम जलाया करती थी मुझे,
अपने महबूब के हाथों से..
जिन्हें थाम लेना तुम अपना हक़ समझती थी,
या शायद मुझे जला पाने की एक उम्मीद..

और मैं हर बार जल जाता था,
बस तुम्हारा जूनून देख कर..
कितनी शिद्दत थी तुम्हारे अंदर मुझे मिटा देने की..
यूँ ही तो कोई ख़ाक में आग नहीं लगाता..
हाँ, यूँ ही कोई समुंदर में भी आग नहीं लगाता..

कोई जूनून हो ये भी ज़रूरी नहीं..
कभी एक उम्मीद भी होती है..
कि अगर नहीं जला ये,
तो अपने अहंकार में मुझे बहा तो ले जायेगा..
मौत की आगोश में ना सही,
बस किसी और शहर, 
जहाँ कोई और किनारे पर बैठा,
इसे जलाने की कोशिश करता होगा..

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