ज़िन्दगी का धंधा

ज़िन्दगी के गल्ले पर बैठ कर
नफे-नुकसान का हिसाब करते-करते
लायबिलिटी और एसेट में उलझ कर
धंधा करना ही भूल गए

फिर मूल और सूद में ऐसे अटके कि
ना ज़िन्दगी की बैलेंस शीट बन सकी
ना कोई सेविंग्स अकाउंट खुल सका
फिक्स्ड डिपाजिट थे जो, टूटते चले गए

थोड़ी इंसानियत कमाई थी कभी शायद
आज कल उसी की पेंशन से गुज़ारा चल रहा है

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