कोरी कल्पनाएँ

घर के बाहर बनी वो छोटी कोठरी,
जिसमें बैठ कर तुम ख्वाब बुना करते थे,
फिर शब्दों में सजा कर उसे,
बना देते थे एक नयी कविता,
मैं पूछता तो कह कर टाल देते थे,
कोरी कल्पनायें हैं ये,
इसमें कुछ सच नहीं..

अब तुम्हारे बाद वो कोठरी,
तुम्हारी कोरी कल्पनाओं को समेटे,
कविता लिखने में व्यस्त है,
ताकि एक ख्वाब देख सके,
जिसमें तुम जीवित हो,
कोरी कल्पनायें हैं ये,
इसमें कुछ सच नहीं..

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