अहंकारी

बचपन से ही सब को या तो इज़्ज़त या फिर पैसे के पीछे भागते देखा था शायद इसलिए इन दोनों चीज़ों की आरज़ू बहुत कम रही। इज़्ज़त को ताक पर रख कर हम गालियाँ कमाना चाहते थे। हाँ पर पैसा हमें तब भी चाहिए था।

भाग-दौड़ शुरू हुई मंज़िल की तरफ। बहुत बुरा होने की कोशिश की और बहुत हद तक मंज़िल को पा भी लिया। कसम से बहुत गालियाँ कमाई। मगर जहाँ गालियाँ देने वाले लोग थे वहीं कुछ लोग बेवजह इज़्ज़त भी देने लगे थे और ये बात भीतर बहुत खलती थी। ये इज़्ज़त तो नहीं चाहिए थी ना और ना ही ऐसा कुछ किया था कभी कि इज़्ज़त मिले।

ज़िन्दगी बहुत ज़्यादा नहीं गुज़री है मगर एक वक़्त ऐसा भी आया था जब कुछ लोग मेरे जैसे दो कौड़ी के इंसान की खातिर भी किसी को मार देने की कसमें खाते थे। आज भी हो सकता है ऐसे दो-चार लोग मिल जाएँ।

मगर जब ये सब घटते हुए देखा तब समझ आया कि इज़्ज़त और गाली साथ ही आते हैं। सारी दुनिया अगर आपसे खुश नहीं हो सकती तो सारी दुनिया आपसे नफरत भी नहीं कर सकती। बस ये जो दोनों तरह के लोग हैं ना उनकी आबादी और उनकी जगह बदलती रहती है। जब इनके खुद का ठिकाना नहीं कि कब ये अपना दल बदल लें तो इनकी दी हुई इज़्ज़त और गालियों से फर्क ही क्या पड़ता है।

बस फिर, एक और आरज़ू ने दम तोड़ दिया एक और गाली के साथ। अब ये दुनिया हमें 'अहंकारी' बुलाती है।

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