चुनाव

हर बार तो वही कहानी दोहराई जाती है ना,
निष्पक्ष चुनाव कभी नहीं होता..
जब भी कभी हुस्न और इश्क़,
होते हैं आमने-सामने..

हर बार हुस्न जीत जाता है,
जज्बातों की फर्ज़ी वोटिंग से..
और ज़मानत जब्त हो जाती है,
लाचारी से हारे हुए इश्क़ की..

कोई सबूत भी नहीं मिलता,
हुस्न के बाहुबल का..
इसलिए सुना दी जाती है,
इश्क़ को ताउम्र तड़पते रहने की सज़ा..

ये कह कर कि कमज़ोर थे तुम,
जो ना खरीद सके वफ़ा और दीवानगी के वोट..
समाज ने सुना दिया है पोलिंग का परिणाम,
फिर हार गया है इश्क़ हुस्न की मार से..
फिर हुस्न की सरकार आएगी सत्ता में,
और अदाओं के ज़ुल्म के साये में इश्क़ की सांसें घुटेंगी..

मगर जीना होगा अब,
हुस्न के ही राज में इश्क़ को,
वही बेग़ैरती की चादर ओढ़ कर..
जब तक फिर किसी दिन,
कोई इश्क़ विद्रोह ना कर दे..
और फिर से हुस्न के आगे,
टूट ना जाएँ उसकी सांसें..

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