बदनामी

बाहर फैला अँधेरा,
वासना का हाथ थामे,
एक दांव खेल गया..
प्रेम, जो पवित्र होने का दावा करता था,
उसकी लपेट में आ कर,
कालिख पोतने निकल पड़ा अपने चेहरे पर..

बहक जाना तो आम रहा है इश्क़ में,
इस बार फिर इश्क़ के चेहरे पर था हवस का मुखौटा,
जिसे वो पहचान ना सकी थी,
उसे लगा था ये कर के पा लेगी वो अपना प्यार,
वही प्यार जो उसके प्यार को उसके जिस्म से था,
जिसकी खातिर उसने उतार फेंकी थी अपनी आबरू..

बेपरवाह हो गयी थी वो ज़माने की बातों से,
उसे नहीं रही थी फ़िक्र समाज के किसी ताने की,
अपने खूबसूरत चेहरे को काला कर के,
वो घूम सकती थी उसके साथ गधे पर बैठ कर..
उसने ताक पर रख दी थी अपने परिवार की इज़्ज़त,
वो शायद यही चाहती थी कि कोई ना थामे उसका हाथ,
सिवाए उस हाथ के जो उस गंगा को मैली करने वाले थे..

एक तरफ प्रेम को पूरा करने की आरज़ू थी,
दूसरी तरफ जोश उफ़ान पर था..

अपने शर्म को निर्वस्त्र करने,
हया का कौमार्य भंग करने,
आँखों के काजल को बहाने,
अपनी अदाओं पर इतराने,
बदचलनी का चोगा पहन कर,
अँधेरी रात का सन्नाटा अपने दामन में समेटे,
कल रात मेरे कमरे में बदनाम होने आई थी वो..

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