ओंस की बूँदें

ये ओंस में लिपटे खेत दिख रहे हैं ? कुछ याद आ रहा है ? हम भी यूँ ही लिपटे होते थे एक दूसरे से जैसे कभी नहीं बिछुड़ेंगे।  सूरज की किरणें भी हमें कहाँ ज़ुदा कर पाती थीं। यूँ लगता था किसी आग में इतनी गर्मी नहीं की हमे जुदा कर पाए।

फिर अचानक क्या हुआ?  शायद हमने उस सूरज को कमज़ोर समझा था। वो हमारे बंधन, हमारे प्यार, हमारी चाहत से ज़्यादा ताक़तवर था।  शायद उस सूरज में हमारे इश्क़ से ज़्यादा गर्मी थी। इतनी गर्मी जितनी हज़ारों ज्वालामुखियों के फटने से भी नहीं निक़लती। 

क्या हुआ आखिर, क्यों हुआ आखिर इस बात से दोनों ही अनजान हैं मगर क्या हुआ ऐसा कि अब ओंस को इन खेतों की याद भी नहीं आती। 


जाने कितने ही सावन आये, कितनी ही बारिश हुई, कितने ही और फसल लहलहाए इस खेत में मगर आज तक इन खेतों की प्यास नहीं बुझी। भला ओंस की चंद बूंदों की क्या औकात है सावन के आगे। मगर क्यों सावन भी इन खेतों की जली ना बुझा पाया ? शायद तप कर जल जाना ही इन खेतों का नसीब है।

ये खेत अब सूख चुके हैं, अब यहाँ फसलें नहीं लहलहाती। इन खेतों का बंजर होना सबने देखा, वजह कोई ना जान पाया। सूखे ही सही ये खेत मगर अब भी ओंस की बूंदों के इंतज़ार में हैं। अब इन मासूम खेतों को कौन समझाए कि  जाने वाले कभी लौट कर नहीं आया करते। 


सर्वाधिकार सुरक्षित 
नादान 

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