मंझधार

वो हर पल डूबता था उस बर्बादी के सागर में, तब मैं हर बार उसे सहारा दिया करता था। उस दिन भी वो डूब ही रहा था जब मैं अपनी कश्ती लेकर उसे बचाने पहुंचा था। उसका हाथ थाम कर मैंने उसे अपनी कश्ती पर खींचा तभी जाने कहाँ से उसका कोई नया साथी भी उसका हाथ थाम कर मेरी कश्ती पर सवार हो गया। मैंने भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और यूँ ही चलता रहा। 

कुछ देर तक सफर यूँ ही चलता रहा। फिर अचानक मौका देख कर उन दोनों ने मुझे मेरी ही नाव से धक्का दे कर गिरा दिया। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैं बदहवासी के आलम में पहुंच गया था। उसके इस झन्नाटेदार तमाचे जैसे धोखे ने मेरे दिल दिमाग सब को झंकझोर कर रख दिया था। 

क्या हुआ? क्यों हुआ? मेरी गलती क्या थी? कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। मेरा वजूद मेरे आँखों के सामने सैकड़ों सवालों के साथ खड़ा ज़िन्दगी की भीख मांग रहा था। मैं बीच मंझधार अपनी ज़िन्दगी को बचाने की खातिर संघर्षरत रहा और वो मुझसे दूर, बहुत दूर जा चुके थे। 

मैं इस अफ़सोस में नहीं था की मैंने उन्हें क्यों बचाया बल्कि अफ़सोस तो ये था की उसने किसी अजनबी की खातिर मुझे बीच मंझधार ज़िन्दगी और मौत से लड़ने को छोड़ दिया था मगर आज भी ज़ेहन में उसे याद कर के ये सवाल कौंध उठता है कि उस दिन आखिर डूबा कौन था ? 

देखने वालों के लिए डूबा तो मैं था उस दिन पर मुझे डूबा कर भी उसने साहिल पर पहुंचा दिया और खुद नाव पर बैठ कर ज़िन्दगी के तूफ़ान में गोते लगाने गया और फिर कभी वापस नहीं आया। 

Comments

Unknown said…
शुक्रिया :)

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