खुदगर्ज़ प्यार

कितनी तड़प है न तुम्हारे अंदर,
उसे तड़पता देखने की..
जिससे बेइंतेहा मोहब्बत थी तुम्हें,
मगर उसने ठुकरा दी थी तुम्हारी चाहत..
भावनात्मक तंगी से हार कर,
आत्मदाह करने पर मजबूर किया था उसने तुम्हारे प्यार को..
और जलते-जलते तुम्हारा इश्क़ भी,
बद्दुयाएं दे रहा था उसके अहंकार को..

फिर जब मिलन हुआ उसकी राख का,
किसी और की मोहब्बत के समुन्दर से..
तो उसका दर्द और भड़क उठा,
उसके अरमानों का शोला और दहकने लगा..
और भड़काने लगा वो तुम्हें,
उस समुन्दर में डूब जाने को..
ताकि उसके अहम् को थोड़ी ठंडक मिले,
और सुकून से जी सको तुम..
हर रोज़ इस दुआ के साथ,
कि कोई उसके अरमानों की भी अर्थी उठाये,
जिसने तुम्हें पल-पल तड़प कर जीने को मजबूर किया था..

जाने कितने ही कसमों-वादों के बाद भी,
कितनी खोखली दुआओं के बाद भी,
जो उसकी ख़ुशी के लिए मांगी थी तुमने..
हर बार यही लगता है,
कि ये दुआएं ना कबूल हो..
वो रोये, तड़पे, तरसे,
किसी के प्रेम को..

मगर दिल की खुदगर्ज़ी यहाँ भी ख़त्म नहीं होती,
वो चाहता है कि जब वो तड़पे तो मेरी बाहों में ही तड़पे..
जिस पर रोये वो कन्धा मेरा हो..
और मैं देख सकूं उसकी मजबूरी,
और उसके टूटे दिल का दर्द..
और मिल जाये मुझे दो पल की राहत..
कि हम एक नहीं तो क्या हुआ,
हमारी किस्मत तो एक ही है..

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