एक कविता- अपनी महबूबा के नाम

तुम कहती हो एक कविता लिखो मेरी खातिर,
तुम ही तो मेरी कविता हो,
तुम ही तो हो मेरा कागज़, मेरी कलम और मेरे ज़ज्बात,
जिन्हें मैं हर वक़्त शब्दों में ढालने कि कोशिश करता हूँ,
जब तुम पास होती हो तो तुम्हें पढता हूँ,
और जब तुम पास नहीं होती तो तुम्हारे खयालातों से रंजिश करता हूँ,

हाँ ये सच है मैं तुम्हें कभी बयान नहीं कर पता,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
मगर दिल ही दिल में तुम्हें पाना चाहता हूँ,
तुम्हारे नैन जो लफ्ज़ से भी ज्यादा गहरे हैं,
मैं उनमें डूब जाना चाहता हूँ,

बहुत कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे,
कैसे कहूँ मुझे बतलाओ ना,
कैसे कहें कि तुम स्वच्छ, पवित्र हो, निर्मल हो, 
तुम तितलियों सी चंचल हो,
तुम हो फूलों कि तरह नाज़ुक,
तुम हो अश्क़ों से भी ज्यादा भावुक,
तुम हो इस नादान दिल कि सबसे अज़ीज़ ख्वाहिश,
तुम हो इन होठों कि सबसे प्यारी फरमाइश,

तुम नदिया कि धारा हो,
तुम मेरा जीवन सारा हो,
तुम इस निर्मल जल कि निर्झर सरिता हो,
तुम ही तो मेरी सबसे खूबसूरत कविता हो,
वो कविता जो दिल के सबसे करीब है,
वो कविता जो ज़रा सी अज़ीब है,
वो कविता जो मेरी आँखों में बसती है,
वो कविता जो मेरा नसीब है,

अब तुम ही बताओ कि मैं क्या लिखूं तुम्हारे बारे में,
कविता पर कविता कैसे करुँ,
तुम्हारी ये चाहत कैसे पूरी करुँ,
तुम ही बताओ मैं कैसे लिखूं और क्या लिखूं,
बताओ ना!

सर्वाधिकार सुरक्षित 
नादान 

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